Poem post authorMedia Jagat 10 Nov, 2018 (968)

बैसाखी-2

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याद करो दोस्तों 

बैसाखी का त्यौहार था

जलियां वाला बाग था

और मौत का व्यापार था

बह रहा खून था

देश के शहीदों का

कैसा ये इश्क था

आजादी के मुरीदों का

बहनों वारे वीर

माताओं वारे लाल थे

बूढे जवान और

छोटे छोटे बाल थे

अजीब ये बैसाखी थी

अजीब ये सुमेल था

भंगड़े और तोपों का

नया ये मेल था

एक तरफ मेलों में 

पड़ रही ढोल पर थाप थी

दूसरी तरफ गोलियों की 

हो रही बरसात थी

इस तरह निकल गई

यारों कई बैसाखियां

जलियां वाले बाग की

लोग गाने लगे साखियां

अचानक एक दिन 

उधम सामने आ गया

जहांगीर हाऊस लंदन में

डायर को सुला दिया

मार के अंगे्रज को

उधम खड़ा जांबाज था

कहता बदला है ले लिया

जलियांवाले बाग का

हंसता हुआ झूल गया

फांसी पे उधम जवान था

मगर रो रहा उस वक्त 

सारा हिन्दुतान था

दोबारा ना कोई बने डायर

ऐसी रीत 'दरवेशÓ धर चले हां

आखिरी सलाम दोस्तों

देशवासियों को कर चले हां

POEM

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