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भव्यता एवं प्राचीनता की मिसाल है प्राचीन श्री कृष्ण मन्दिर
Dharmik post authorMedia Jagat 20 Nov, 2018 (2805)

भव्यता एवं प्राचीनता की मिसाल है प्राचीन श्री कृष्ण मन्दिर

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हरियाणा के फतेहाबाद कस्बे के यशस्वी धर्मपरायण दानवीर सेठ श्री फतेहचंद ने सन्ï 1777 ई. में चिल्ली के तट पर बड़ी श्रद्घा से एक विशाल और भव्य श्रीकृष्ण मंदिर का निर्माण करवाया था, जो कि दूर-दूर तक श्री कृष्ण बड़ा मंदिर, फतेहाबाद के नाम से विख्यात हुआ। यह मंदिर श्री राम सेवा समिति द्वारा संचालित चिल्ली वाली धर्मशाला के परिसर में स्थित है। मंदिर के आगे लगभग 20x70 फुट आकार का चबूतरा है। जिस पर समिति के कलाकार 2-2 महीने तक रात्रि में बैठकर रामलीला का पूर्वाभ्यास पंडित श्री सूरजभान, धनपत राय गुप्ता व चिंरजीलाल गोयल के निर्देशन में सन्ï 1961 ई. तक करते रहे। चबूतरे के बाद एक बड़ा बरामदा है, फिर मंदिर का विशाला गर्भगृह है। इसमें सुंदर शिल्पकारी से बना एक सिंहासन है। सिंहासन की वेदी पर लगभग 18 इंच लम्बी भगवान श्री कृष्ण की काले रंग की कसौटी के पत्थर से बनी वैसी ही मूर्ति विराजमान है। जैसे कि मथुरा-वृंदावन के प्राचीन मंदिरों में ठाकुर जी की मूर्तियां स्थापित की हुई हैं। श्री राधाजी की मूल प्राचीन मूर्ती को खंडित होने के कारण सन्ï 1969 में हरिद्वार ले जाकर गंगाजी में प्रवाहित कर दिया गया था। उसके स्थान पर जयपुर से लाकर लगभग 14 इंच ऊंची श्वेत संगमरमर की मूर्ती विधिपूर्वक प्रतिष्ठिïत कर दी गई थी। यह कार्य दानवीर महिलाओं के सहयोग से पं. गोवर्धनदास द्वारा संपन्न करवाया गया। मंदिर का शिखर विशाल गुबंदाकार चूने से बना हुआ है। गर्भगृह की चारों ओर परिक्रमा बनी हुई है। सेठ श्री फतेहचंद ने श्री कृष्ण मंदिर से संलग्न विशाल पुजारी भवन का भी निर्माण करवाया। इसके अतिरिक्त दुर्गा मंदिर, शिव मंदिर व हनुमान मंदिरों का भी निर्माण करवाया गया। इन्हीं मंदिरों के साथ एक विशाल सरोवर भी खुदवाया, जिसके तट पर पुरूषों के लिए दो पक्के घाट, एक महिला घाट व मुस्लिम बंधुओं के लिए एक पृथक घाट मैन बाजार की ओर बनवाया गया। इन सभी निर्माण कार्यों के कारण मंदिर क्षेत्र का समस्त क्षेत्र अत्यंत रमणीक हो गया। पीपल, नीम और वट वृक्षों पर सैंकड़ों प्रकार के पक्षी न केवल बसेरा करने लगे अपितु वे अपनी मीठी कलरव ध्वनि से वातावरण बनाए रखते थे। जनता भी प्रात: इनके चुगने के लिए मंदिरों की छतों पर दाना डालने लगी। कस्बा वासियों का यह नित्य कर्म बन गया था कि प्रात: ब्रह्मï मुहुर्त में उठकर श्रीकृष्ण मंदिर परिसर में जाना, सर्वप्रथम पक्षियों के लिए दाना डालना, फिर दातुन करके वहीं घाटों पर स्नान करने के उपरांत मंदिरों में शीश झुकाना, चरणामृत व प्रसाद लेकर घर वापिस लौटना, हरियाणा गौशाला की गऊओं को प्रात: गऊशाला से लाकर यहीं (वर्तमान में चिल्ली धर्मशाला वाला स्थान) रखा जाता था। उनके चारे हेतु पक्की खुरलियां यहां बनी हुई थी। स्थानीय जनता पक्षियों के दाने के साथ-साथ घर से चपातियां व अन्य खाद्य सामग्री भी साथ लाती और गौग्रास के रूप में अर्पित करती थी। कस्बा वासियों का यह नित्य कर्म था। श्रावण मास में उपरोक्त वृक्षों पर झूले डाले जाते थे और नव विवाहिता लड़कियां व बहुएं इन पर सामुहिक गीत गाते हुए झूलती थी। कई बार अनेकों को सांयकाल तक झूलने का मौका ही नहीं मिलता था। इतनी भीड़ रहती थी। सन्ï 1975 ई. के बाद यह सामुहिक क्रम टूट गया। यहां विचरने वाले मोर और कौवे भी यहां से पलायन कर गए। केवल कबूतर, मौड़ी,  गुरसल और कुछ चिडिय़ां ही यहां वृक्षों पर रह गई हैं। धर्मपरायण लोग अब भी इनके लिए दाना डालते हैं। प्राचीन समय से ही कृष्ण मंदिर में श्रीकृष्ण जन्माष्टïमी, अन्नकूट और शरत्ï पूर्णिमा के तीन त्यौहार मनाए जाते थे। जन्माष्टïमी पर्व पर मंदिर में रंग-सफेदी करवाई जाती थी। हिंडोला डाला जाता, रात्रि को समस्त कस्बा वासी मंदिर प्रांगण में रात्रि 12 बजे तक बैठकर भजन कीर्तन करते प्रभू के प्रकट होने पर सभी वहीं चिल्ली में स्नान करके पुजारी जी से प्रसाद व चरणामृत लेकर अपना व्रत खोलते और मंदिर की छतों पर कांच से बने झाड़-फानूश लटकाए जाते। पहले इनमें तेल की दीपकों और बाद में मोमबत्ती से प्रकाश किए जाने लगे। इस प्रकार की रंगीन रोशनी से मंदिर की छटा अत्यंत मनोहारी हो जाती थी। दीपावली पर भी इन्हें लगाया जाता था। 1947 में इस अमूल्य धरोहर के गुम होने से यह परम्परा बंद हो गई। दीपावली पर्व पर भी मंदिर में ऐसी सजावट की जाती थी। आश्विन मास की शरत्ï पूर्णिमा की रात्रि को खीर बनाकर चंद्रमा की किरणों में इसे रखा जाता था और अगले दिन प्रात: इसे सभी कस्बावासियों को औषधी रूपी इस खीर के प्रसाद को बांटा जाता। इसके सेवन से दमा, क्षय और पुरानी खांसी ठीक हो जाती थी। गोवर्धन पर्व पर अन्नकूट का उत्सव भी श्रद्घा से मनाया जाता था। 56 प्रकार के व्यंजन बनाकर ठाकुर जी को भोग लगाकर फिर उसे प्रसाद रूप में श्रद्घालुओं को वितरित किया जाता। अब भी मंदिर में तीनों पर्व परम्परागत ढंग से मनाए जा रहे हैं। परंतु सैंकड़ों की संख्या में उमडऩे वाली वह भीड़ अब नदारद है। सनातन धर्म में कार्तिक मास में महिलाओं द्वारा मंदिरों-सरोवरों पर जाकर स्नान करने का बड़ा महात्म्य है। फतेहाबाद कस्बे की लगभग 100 महिलाएं सन्ï 1950 तक कार्तिक स्नान के लिए चिल्ली के महिला घाट पर प्रात: साढ़े तीन-चार अपने घरों से आती थी और स्नान के बाद पुजारी जी से श्रीकृष्ण मंदिर में बैठकर कार्तिक महात्म्य की कथा सुनती थी। धीरे-धीरे घरों में हैंडपम्प लगने और बाद में पालिका द्वारा जल अर्जित नलकूपों द्वारा करने से और चिल्ली में प्रदूषण बढऩे से यह परम्परा सन्ï 1970 तक आते-आते बंद हो गई। प्रत्येक पूर्णमासी पर पुजारी जी भगवान श्री सत्यनारायण की कथा भी मंदिर में महिलाओं को सुनाते थे। कस्बे में जब किसी लड़के का विवाह होता था, तब घुड़चढ़ी अपने निकटतम परिवारजन के घर जाने के लिए निकलती, तब घोड़ी को सर्वप्रथम श्रीकृष्ण मंदिर में ले जाया जाता और दूल्हे को वहां मंदिर में धौक लगवाकर पंडित जी से आशीर्वाद लेना आवश्यक समझा जाता था, अब मान्यताएं बदल गई हैं। कहीं भी धौक लगवाई जा सकती है, भगवान तो सर्वव्यापक हैं। श्री कृष्ण मंदिर का प्रारंभ में प्रबंध ला. श्री फतेहचंद व बाद में उनके परिवारजनों ने किया। परिवारजन फतेहाबाद छोड़कर अन्यत्र जा बसे। तब कस्बावासियों ने सामुहिक रूप से इसे संभाला। तत्पश्चात्ï सन्ï 1928 ई. में श्रीराम सेवा समिति का गठन होने के बाद इस संपूर्ण मंदिर परिसर का प्रबंध उसके द्वारा होने लगा है। मुरम्मत, रंग-रोगन करवाना, बिजली बिल आदि सभी का भुगतान समिति करती आ रही है। श्रीकृष्ण मंदिर व चिल्ली घाटों का सर्वप्रथम जीर्णोद्घार का कार्य स्व. चौ. खुशीराम अर्जनवीस द्वारा सन्ï 1961 से 7 अक्तूबर 1963 की अवधि में जनसहयोग से संपन्न हुआ। उन्होंने श्रीकृष्ण मंदिर के चबूतरे का आकार न केवल काफी बड़ा करवाया, अपितु इस पर सीमेंट का फर्श भी लगवाया। मंदिर की सीढिय़ों से लेकर घाटों तक के संपूर्ण क्षेत्र को सीमेंट से पक्का करवाया। उन्होंने इस कार्य में उल्लेखनीय योगदान दिया। बाद में काल के थपेड़ों ने मंदिर की छत को जर्जर कर दिया। श्रीराम सेवा समिति के तत्कालीन प्रधान अनिल कुमार गर्ग ने शीघ्र कदम उठाकर समिति की ओर से संपूर्ण मंदिर का जीर्णोद्घार करवाया, जो कि 10 मार्च 1994 को पूर्ण हुआ। श्री प्रहलाद चचान ने भी इसमें काफी योगदान दिया। सेठ श्री फतेहचंद जी द्वारा ही निर्मित यहां एक प्राचीन और सिद्घ भगवती दुर्गाजी का भव्य मंदिर है। इसमें लगभग 7"35" फुट आकार की लघु मूर्ती स्थापित है। सन्ï 1992 में श्री प्रहलाद चचान ने इस मंदिर में माता की एक लगभग 18" ऊंची भव्य मूर्ती की स्थापना करवाई और संपूर्ण मंदिर का जीर्णोद्घार करवाया। वे ही यहां वर्ष में दो बार नवरात्रों में श्री दुर्गा शप्तशती का पाठ व हवन भी करवाते हैं। ला. श्री फतेहचंद जी द्वारा ही निर्मित फतेहाबाद के प्राचीनतम शिव मंदिर को चिल्ली में निरंतर आती बाढ़ों ने जीर्ण-शीर्ण कर दिया था, जब चिल्लीवाली  समिति धर्मशाला का निर्माण सन्ï 1959 ई. में संपूर्ण हुआ, तब बची हुई कुछ भवन सामग्री व दानवीर महिला श्रीमती रामबाई धर्मपत्नी बालकृष्ण चौधरी द्वारा दान में दी गई 1000 रुपए की धनराशि से इस शिव मंदिर का भव्य रूप में पुर्ननिर्माण हो पाया। इस शिव मंदिर की नगर में अत्यधिक मान्यता थी। फतेहाबाद क्षेत्र के शिव भक्त सैंकड़ों वर्षों से ही हरिद्वार से पैदल कांवड़ों द्वारा गंगाजल लाते रहे हैं परंतु ये कांवड़ किरमारा गांव स्थित कामेश्वर धाम में ही अर्पित करते थे। उस समय कोई भी भक्त अपने गांव या फतेहाबाद के किसी भी शिवमंदिर में कांवड़ अर्पित नहीं करते थे। फतेहाबाद में इस नई परम्परा का शुभारंभ भगवान दास चचान (भानाभक्त) द्वारा श्रावण शिवरात्रि में सन्ï 1956 ई. खड़ी कांवड़ जाकर किया गया। उनका साथ दिया सुश्री तुलसां देवी प्रजापत व सुश्री चम्पीदेवी बिछडिय़ा ने ये दोनो महिलाएं बैठी कांवड़ हरिद्वार से पैदल लाईं। इन्हें देखने के लिए समस्त नगरवासी श्रीकृष्ण मंदिर परिसर में उमड़ पड़े। त्रयोदशी के साथ दिन मेला लगा रहा। रात्रि जागरण व कीर्तन होता रहा। चतुर्दशी की प्रात: जब शिवमंदिर में गंगाजल से भरी कांच की शीशीयां शिवपिंडी पर अर्पित की जाने लगी, तब भीड़ अनियंत्रित हो गई। क्योंकि प्रत्येक श्रद्घालु शीशी लेना चाहता था। यह एक असंभव कार्य था। मैने अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में किसी मंदिर में एकत्रित होने वाला यह सबसे बड़ा समूह देखा। यहां भक्ति और श्रद्घा का सागर भी उमड़ते देखा। फतेहाबाद में पहली बार कांवड़ लाने व अन्य शिव भक्तों को कांवड़ लाने की प्रेरणा देने का श्रेय भगत भगवान दास को ही जाता है। चिल्ली के इस शिव मंदिर में फिर यह अंजनी कुमार मित्तल 'आजादÓ सपरिवार ने यहां डाक कांवड़ लाकर अर्पित की। यह श्रद्घालु परिवार वर्ष की दोनो शिवरात्रियों में डाक कांवड़ ला रहा है। चिल्ली के घाटों पर जाने वाले मुख्य मार्ग की दायीं ओर 15 फुट लंबा व 6 फुट चौड़ा और लगभग 8 फुट ऊंचा एक छोटा सा भवन है। आतंरिक रूप से यह भवन दो भागों में विभक्त है। इसमें दो शिवालय बने हुए हैं। दोनों के शिखर लघु गुम्बदाकार रूप में हैं। प्रथम शिवालय में बहुत मनोहारी अष्टïकोणीय शिवपिंडी जलहरी के मध्य विराजमान है। इसका वास्तुशिल्प अत्यंत आकर्षक व दर्शनीय है। यह अद्ïभुत शिल्पकारी युक्त शिवलिंग नगर वासियों की आंखों से ओझल है। प्रचार के अभाव व उदासीनता के कारण ही ऐसा हुआ है कि हम इसकी महिमा को अभी तक पहचान नहीं पाए हैं। संलग्न ही दूसरे शिवालय में गोल शिवलिंग जलहरी के मध्य स्थित है। विगत 50 सालों से उपेक्षित पड़े शिवालय के इस युगल स्वरूप की मुरम्मत व रंग-रोगन प्रहलान चचान द्वारा ही 5 वर्ष पूर्व करवाकर इन्हें आकर्षक रूप व नवजीवन प्रदान कर दिया है। इनके प्रवेश द्वारों पर ग्रिलगेट लगवाने की शीघ्र आवश्यकता है ताकि इनकी पवित्रता बनाई रखी जा सके। चिल्ली के घाट के ठीक ऊपर एक और प्राचीनतम शिवालय बना हुआ था, जो कि बाढ़ व चिल्ली के पानी की निरंतर मार से नींव से ही खोखला हो गया था ओर इसका गुम्बद एक ओर झुकने लग गया था। इसी कारण इसे टेढ़े शिवालय के नाम से पुकारा जाने लगा था लेकिन श्रद्घालुओं का इसमें पूर्जा-अर्चना का क्रम अनवरत जारी था। कहीं कोई अनहोनी होकर दुर्घटना न हो जाए, इस कारण सन्ï 1960-61 में इसको ध्वस्त कर दिया गया था। इसके पीछे एक कुंआ भी था। उपयोगिता न होने के कारण इसे भी बंद करवा दिया गया। अब इस क्षेत्र में समिति के प्रधान प्रेम स्वरूप बुढलाढिया ने एक सुंदर वाटिका बनाकर इसमें विभिन्न प्रजातियों के फूलों के पौधे व वृक्षों के पौधे लगवा दिए थे। इसके साथ ही चौधरी परिवार के पवित्र स्थान बरववे के पुजारी पं. महादेव प्रसाद ने शीतला माता की मंढिया भी बनवा दी और तेल अर्पित करने के लिए एक स्थान नगर रक्षक क्षेत्रपाल का भी बनवा दिया है। अब ब्रह्मïचारी जी ही पुष्पवाटिका की यथाशक्ति सेवा कर रहे हैँ। चिल्ली के प्रथम घाट पर समाज सेवक मोहन लाल मित्तल ने सन्ï 1998 ई. में 7"37" फुट के आकार का एक कक्ष गुडग़ांव वाली शीतला माता के नाम से निर्मित करवाया है। इसके तीन और 2 फुट चौड़ी परिक्रमा है। कक्ष के ऊपर लाल रंग का स्नोशन किया है। भक्त की ओर से अभी इसका और सौंदर्यकरण करवाना शेष है। श्री मंदिर के सामने उसके ही चबूतरे पर सीढिय़ों पर चढ़ते ही दायें हाथ पर एक कोने में श्री हनुमान मंदिर स्थित है। यह भी  सेठ फतेहचंद जी बनवाया हुआ प्रतीत होता है। यह एक छोटे पुजारी श्री बनवारी लाल द्वारा सन्ï 1994 ई. में करवाया गय था। मंदिर के अंदर सिंदूर मंडित हनुमान जी की 5 फुट ऊंची मूर्ती स्थापित है। कभी मंगलवार को यहां प्रसाद अर्पित करने वाले भक्तों की भीड़ जुटती थी और प्रसाद पाने वाले बच्चों की भी। अब ये सब अतीत की बातें हैं। श्रद्घालु अवश्य ही इस मंदिर की छत पर पक्षियों के लिए नियमित रूप से दाना डाल रहे हैं। जब चंद्र-सूर्य ग्रहण का योग बनता और उसका सूतक प्रारंभ हो जाता, तब तब कस्बे के सभी पुरूष सदस्य श्री मंदिर में चले आते। पूर्ण निराहार रहकर इस अनिष्टïकारी ग्रहण समय को ईश्वर वंदना में लगा देते। भजन कीर्तन करते। ग्रहण के मोक्ष से हो जाने पर वहीं चिल्ली के घाटों में स्नान करके पवित्र होते, उस समय घरों में महिलाएं भी यहां आकर जनाना घाट में स्नान करती। स्नान उपरांत जब लोग श्री कृष्ण मंदिर परिसर से बाहर मेन बाजार में आते, तब वहां खड़े श्री नानक चंद डाकोत के लौटे में दक्षिणा डालकर अपने घरों में जाकर स्वल्प आहार लेते। घरों में पेयजल आपूर्ति प्रारंभ होने व चिल्ली के प्रदूषित होने से उपरोक्त सनातन परम्परा स्वतंत्रता के कुछ वर्ष बाद बंद हो गई। शिवपुरी में शिवपुरी का संस्कार करके सभी लोग चिल्ली में स्नान करके घरों को वापिस लौटते। अब यह सब परम्पराएं भंग हो गई हैं। लेकिन कुछ प्रांसगितता अभी भी शेष है। मृतक की अस्थि संचय के बाद से लेकर 11वें दिन तक पंडितजी, क्रिया पर बैठने वाले से पिंडदान यही पीपल के वृक्ष की साक्षी में करवाते हैं। मृतक के नाम का पानी से भरा घड़ा यही पीपल में रखवाया जाता है। 11वें दिन इसे चिल्ली में विसर्जित करवाया दिया जाता है। इस क्रिया में 10वें दिन परिवारजन यही आकर क्षोर कर्म आदि करवा बाद में स्नान करके मृतक के प्रति तिलांजलि अर्पित करके शुद्घ करके शुद्घ होकर घरों को जाते हैं। मृतक की अस्थियों की थैली को यहां के मंदिरों में तब तक रखा जाता था, जब तक उनके परिवारजन इन्हें गंगाजी नदी में प्रवाहित नहीं कर पाते थे। यह क्रम अनवरत 200 वर्षों से अधिक अवधि तक चला लेकिन 15 वर्षों से इन्हें रखने की व्यवस्था शिवपुरी में हो गई है। देश के सभी प्रमुख ज्योतिषाचार्यों व विद्वानों ने एकमत होते हुए भविष्यवाणी कर दी थी कि सन्ï 1962 ई. के अमुक दिन अष्टïग्रहों का योग बनता है अत: देश में प्रलय आ जाएगी और हम सभी नष्ट हो जाएंगे। 

इस भविष्यवाणी से प्रत्येक देशवासी अत्यंत भयभीत और चिंतित था। इस अनिष्ट के निवारण हेतु प्रत्येक व्यक्ति धर्म-कर्म में यथाशक्ति लगा हुआ था। समस्त देश  के लाखों मंदिरों में विशेष पूजा-अनुष्ठनों का आयोजन किया जा रहा था। फतेहाबाद निवासी भी इस आने वाले मुसीबत से कैसे अछूते रह सकते थे। वैसे तो फतेहाबाद कस्बे की अधिकांश जनता धर्म परायण थी और अपने ढंग से दानपुण्य के कार्य में जुटी हुई थी ताकि उसके प्रभाव से सभी को इस अनहोनी से छुटकारा मिल जाए। ऐसे कठिन समय में नगरवासियों कोि भयमुक्त करने के लिए स्वत: प्रेरणा से हरिद्वार से एक सिद्घ योगी श्रीकृष्ण मंदिर में पधारे। नगर वासियों ने उस भयमुक्त वातावरण में पधारे संत को किसी देवदूत से कम नहीं समझा और उन्हें सिर-आंखों पर बिठा लिया। उन्होंने भी किसी को निराश नहीं किया। भयभीत प्राणियों को अपने सारगर्भित प्रवचनों से ढांढस बंधाया और विश्वास दिलाया कि अष्टïग्रहों के योग से किसी का भी अनिष्टï नहीं होगा। इस दुष्प्रभाव को दूर करने के लिए उन्होंने एक सप्ताह तक श्री मद्ïभागवत कथा का अमृतपान जनता को करवाया। समापन पर उन्होंने एक हवन किया, जिसमें उन्होंने मंत्रशक्ति के बल पर अग्रि को प्रज्जवलित किया। 

कस्बे के सैंकड़ों नर-नारियों ने इस करिश्मे को अपनी आंखों से देखा। संत जी ने अनेक लोगों के कष्टïों का निवारण किया। सभी को भयमुक्त किया। फतेहाबाद की जनता सारे दिन भर ही चिल्ली के इन मंदिरों में आती-जाती रही। 1956 ई. की कावंड़ों के समय भक्तों की जो भीड़ एकत्रित हुई थी, उससे भी कही अधिक भीड़ इस कथा आयोजन पर एकत्रित हुई और एक सप्ताह तक धर्मरूपी सागर में गोते लगाए। संत जी निस्संदेह एक उच्च कोटि के सिद्घ महापुरूष थे। कथा में आया चढ़ावा व अन्य दक्षिणा देकर नगरवासियों ने उन्हेंअश्रुपूर्ण नेत्रों से विदाई दी थी। इतना अवश्य परिणाम निकला कि इस आयोजन से यहां की जनता भयमुक्त हो गई थी। सन्ï 1962 का साल फतेहाबाद वासियों के लिए अत्यंत संघर्ष का वर्ष रहा। इसमें प्रलयकारी बाढ़ आई, जिसमें फतेहाबाद के असंख्य गांव जलमग्र हो गए, फसलें खराब हो गई और हजारों मकान गिर गए। व्यापार चौपट हो गया। इस बाढ़ से ग्रामीण भाईयों ने बहुत कष्ट झेले। 

तत्कालीन प्रशासन ने बाढ़ के समय राहत व बचाव के लिए बहुत ही प्रशंसनीय कार्य किया। इसी अवधि में फतेहाबाद कस्बे व निकटवर्ती क्षेत्रों में 7 दिन की झड़ी लगी अर्थात्ï 7 दिन-रात अनवरत मूसलाधार बरसात हुई। इससे फतेहाबाद जलमग्र हो गया और सैंकड़ों मकान गिर गए। वर्षा का ऐसा रौद्र रूप फतेहाबाद वासियों ने इससे पूर्व  कभी नहीं देखा था और न ही इसके बाद कभी ऐसी बरसात हुई। फतेहाबाद क्षेत्र का अत्यंत रोमांचक लोकसभा चुनाव भी 1962 में हुआ। जिसमें सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार व प्राचीन श्री कृष्ण मंदिर के अनन्य भक्त चौ. मनीराम बागड़ी ने सेठ जी डी. बिड़ला के निकट सहयोगी श्री घमंडी लाल बंसल को पराजित करके जीता। फतेहाबाद क्षेत्र में पहली बार किसी उम्मीदवार द्वारा अपने समर्थन में हवाई जहाज से प्रचार सामग्री के रूप में इश्तिहार गिराए गए थे। प्राचीन श्रीकृष्ण मंदिर व अन्य मंदिरों की स्थापना के बाद प्रारंभ में यहां पुजारी पद पर लगभग 100 वर्ष तक पूजा-अर्चना किसने की, इसकी कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है। परंतु एक अनुमान के अनुसार लगभग सन्ï 1870 ई. से इस पद को पं. गणपत राम दाधीच ने संभाला और ये कस्बे में पुजारी जी व पादा जी नाम से प्रसिद्घ हुए। 

पुजारी जी अपने समय के एक उच्च कोटि के विद्वान थे। उन्हें ज्योतिष व संगीत विद्या का भी गूढ़ ज्ञान था। वे स्वयं हारमोनियम  बजाकर भागवत आदि की संगीतमय कथा सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे। नवाब ऑफ सोत्तर जनाब लाल खां, श्री बालमुकुंद ठेकेदार व चौ. लख्मीचंद इनके विशेष स्नेहपात्रों में थे। शुद्घता और शुचिता के प्रति इनका विशेष आग्रह रहता था। इसलिए हर किसी के घर भोजन नहीं करते थे। वे प्राय: दूर-दूर तक रेलवे स्टेशनों पर जाते थे क्योंकि अनेकों रेलवे बाबू उनके भक्त थे। वे उन्हें वहीं संगीतमयी धार्मिक कथाएं सुनाते थे और वापिसी पर काफी दक्षिणा लेकर लौटते थे। कस्बे के युवक-किशारों ने जब सन्ï 1928 में श्री रामा ड्रामाटिक क्लब का गठन करके रामलीला के आयोजन का निर्णय लिया, तब इनके पास किसी प्रकार की कोई लिखित श्रीराम नाटक संबंधी पुस्तक या अन्य पठनीय सामग्री नहीं थी। तब यह गंभीर समस्या पुजारी जी क समक्ष प्रस्तुत की गई। उन्होंने न केवल रामलीला में कलाकारों द्वारा बोले जाने वाले संवाद लिखे अपितु मार्मिक प्रेरणादायी धार्मिक गीतों की भी रचना की और उन्हें स्वयं ही अपने द्वारा रचित धुनों पर नव कलाकारों को अपने हारमोनियम द्वारा पूर्वाभ्यास करवाकर तैयार किया। 

पं. आत्माराम निर्मल ने भी इस कार्य में यथाशक्ति सहयोग दिया। यदि यह कहा जाए कि कस्बे में पहली बार रामलीला का सफलता पूर्वक मंचन पुजारी जी के अनथक परिश्रम के कारण ही संभव हो पाया तो यह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पुजारी जी नैसर्गिक गुणों से युक्त बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। श्रीकृष्ण मंदिर की पूजा व सेवा अर्चना का का कार्य उन्होंने समर्पित भावना से किया। पं. गणपतराम जी आजीवन ब्रह्मïचारी के रूप में रहे। उनके कार्यकाल में श्री कृष्ण मंदिर की प्रतिष्ठïा चरम सीमा पर थी। उनके समय में संध्याकालीन आरती के समय में कस्बे के प्रत्येक घर से एक सदस्य अवश्य ही मंदिर में उपस्थित रहता था। मंदिर की परिक्रमा, बरामद व चबूतरा श्रद्घालुओं से ठसाठस भरा रहता था। स्मरण रहे कि सन्ï 1929 में बेरी से मुख्त्यिारें आम नियुक्त होकर आए पं. सूरजभान शुक्ला ने रामलीला का समस्त कार्यभार कुशलता से संभाल लिया और सन्ï 1955 ई. तक समिति रामलीला के निर्देशक, अपने स्वर्गवास से पूर्व तक रहे। पुजारी जी ने ब्राह्मïण छात्रों के विद्याध्ययन के मंदिर के पुजारी आवास से संलग्र भूमि पर संस्कृत पाठशाला (ब्राह्मïण भवन) के संचालन हेतु एक विशाल दुमंजिला भवन बनाने का कार्य प्रारंभ किया। इस कार्य के लिए रेलवे अधिकारियों ने इन्हें काफी आर्थिक योगदान दिया। तत्कालीन एक मुस्लिम तहसीलदार, जो इनका प्रशंसक था और इनके द्वारा बताए फलित ज्योतिष के अनुसार अनुष्ठïान करने से आशातीत वे न केवल लाभ प्राप्त कर चुके थे अपितु साथ में पद में प्रोन्नति पाने में सफल रहे। 

तहसीलदार साहब ने खुश होकर इन्हें न केवल स्वयं यथेष्ठï धन दिया और अपने प्रभाव से क्षेत्र के संपन्न किसानों व अन्य धनी व्यक्तियों से प्रचुर धनराशि उपलब्धकरवाई। न्योलीकलां के सेठ और मताना ग्राम के मालगुजार श्री बालमुकुंद गोयल (लेखक के नाना) ने पुजारी जी की संस्कृत पाठशाला के लिए मताना गांव स्थित अपनी भूमि में से 10 बीघा भूमि पुजारी जी को दान में दी ताकि वे इसकी कृषि आय से पाठशाला के कार्य को सुचारू रूप से संचालित करते रहें। यह पाठशाला लगभग सन्ï 1923 ई. में बन गई थी। 

पुजारी जी इन्हें संस्कृत भाषा का व्यवहारिक ज्ञान, कर्मकांड व ज्योतिष की विद्या निशुल्क देते थे। ये छात्र संयमपूर्वक कठोर जीवन का पालन करते थे। कस्बे के घरों में एक समय मधुकरी लाकर अपना भोजन स्वयं बनाकर देते थे। लगभग छह महीने की शिक्षा के बाद ही ये युवक अपने जीविकोपार्जन करने में समर्थ हो जाते थे। पुजारी जी के शिष्य आज भी ढूढने पर यत्र-तत्र अवश्य ही मिल जाएंगे। पुजारी जी स्वयं इस भवन के प्रथम तल पर सर्वथा एकान्त में रहते थे। आवश्यकता पडऩे पर बारात आदि ठहराने के लिए भी पुजारी जी इस भवन को दे देते थे। वैसे यह उनकी निजी संपत्ति थी। 

नवाब ऑफ सोत्तर जनाब लाल खां, जो फतेहाबाद के सर्वाधिक प्रतिष्ठिïत व्यक्ति थे और ब्रिटिश राज ने इन्हें एक प्रकार से ऑनरेरी मजिस्ट्रेट के अधिकार दिए हुए थे, वे भी पुजारी जी के अनन्य भक्तों में सर्वोपरि थे। वे स्वयं को भट्ïटी राजपूत के उच्चवंश से अपना  संबंध बताने में गौरव का अनुभव करते थे। उनके पूर्वजों ने चाहे इस्लाम धर्म कबूल कर लिया था परंतु उनमें अब भी पुजारी संस्कार बचे हुए थे। इसी भावना के कारण वे पुजारी जी को बहुत मान-सम्मान देते थे और उन्होंने अपनी संतानों के विवाह का शुभ मुर्हुत पुजारी जी से निकलवाकर उसी तिथि में प्रथम फेरे करवाए और बाद में काजी से निकाह पढ़वाया। कैसा साम्प्रदायिक सद्ïभाव था। वृद्घावस्था व संस्कृत पाठशाला के कार्यों में अधिक व्यस्तता के कारण पं. गणपतराम जी ने श्रीकृष्ण मंदिर का पुजारी पद लगभग सन्ï 1931 में छोड़ दिया। ब्राह्मïण सभा फतेहाबाद को चाहिए कि वह पुजारी जी की अद्वितीय सेवाओं को चिरस्थायी बनाए रखने के लिए एक या दो पुरस्कार देने की परम्परा प्रारंभ करें। जो छात्र/छात्रा बी.ए., एम.ए. की वार्षिक परीक्षा में फतेहाबाद क्षेत्र में संस्कृत विषय में सर्वाधिक अंक प्राप्त करें, उन्हें श्री परशुराम जयंति समारोह में पं. गणपतराम दाधीच पुरस्कार से सम्मानित किया जाएद्घ सम्मान के रूप में एक पदक, श्रेष्ठïता प्रमाण पत्र और कम से कम 251 रुपए नकद पुरस्कार दिया जाए। यदि हम इतना कर पाए तो पुजारी जी के कार्यों के प्रति हमारी यह विनम्र श्रद्घाजंलि होगी और इस कार्य से भावी पीढ़ी यह भी जान पाएगी कि कोई इतना विद्वान फतेहाबाद में रहकर अपनी विद्वता की धाक बहुत दूर-दूर तक पहुंचा पाया था। 

फतेहाबाद में पुजारी जी के स्वर्गवास के बाद सन्ï 1960-70 के दशकों में पं. शिवनाथ भूथन निवासी ने अच्छी ख्याति पाई। वर्तमान में पं. श्री रामेश्वर दास शास्त्री सिरसा वाले व पं. श्री राधेश्याम आचार्य भिरडाना वाले फतेहाबाद क्षेत्र में उच्च श्रेणी के विद्वान में अग्रणी स्थान रखते हैं लेकिन समर्पित भाव से पुजारी के कर्तव्य को स्व. पं. जमनादास जी ने श्री रघुनाथ मंदिर में लगभग 30-35 वर्षों तक निभाया है। वह योगदान सर्वथा उल्लेखनीय रहेगा। मंदिर ट्रस्टियों ने उनकी प्रतिमा श्री रघुनाथ मंदिर में स्थापित कर उनकी सेवाओं के प्रति सच्चा श्रद्घांजलि अर्पित की है। पं. श्री गणपतराम पुजारी द्वारा पद छोड़े जाने पर ढिंगसरा से पं. भूराराम जी ने केवल एक वर्ष तक सन्ï 1932 ई. में पूजा-अर्चना का कार्य किया। उनके गांव वापिस लौटने पर ला. श्री बंशीधर चौधरी भिरडाना गांव से पंडित श्री गणेशाराम जी उपध्याय को फतेहाबाद ले आए और मंदिर का कार्यभार इन्हें सौंप दिया। नौ-दस वर्ष की सेवा के बाद पं. श्री गणेशाराम जी का वि.स. 1999 में स्वर्गवास हो गया था। 

इसके पश्चात्ï इनके ज्येष्ठï पुत्र श्री बनवारी लाल जी ने पुजारी पद सँभाल लिया। लगभग विगत 55 सालों से ही पुजारी पद पर अपनी सेवाएं श्रीकृष्ण मंदिर को दे रहे हैं। पं. श्री बनवारी लाल जी मास्टर श्री बिन्द्राबन  चौधरी के प्रयासों से 1947 ई. में नायब तहसीलदार के कार्यालय में 44 रुपए मासिक पर चपड़ासी के पद पर नियुक्त हो गए। जबकि उन्होंने किसी भी प्रकार की स्कूल शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। केवल पं. गणपतराम पुजारी की संस्कृत पाठशाला से ही कर्मकांड की शिक्षा पाई थी। भगवान श्री कृष्ण की कृपा से सन्ï 1983 में उन्नति पाकर उपायुक्त कार्यालय हिसार में भी नौकरी की और मार्च 1986 में सेवानिवृत होकर पेंशन ले रहे हैं। एक पुत्र सुभाष जर्मनी में कार्य कर रहा है और दो पुत्र सरकारी सेवाओं में नियुक्त हैं। गत 55-60 सालों से समिति द्वारा संचालित रामलीला की श्री हनुमान ध्वजा इन्हीं के पूजन से फहराई जा रही है। पं. श्री बनवारी लाल जी वृद्घ हो चले हैं परंतु वे नियमित रूप से मंदिरों में पूजा-अर्चना कर रहे हैं। सभी पर्व और उत्सवों का भी आयोजन करते हैं। परंतु  श्रद्घालुओं की संख्या नदारद है। पुराने शहर की आबादी और उनकी धार्मिक निष्ठïा को देखते हुए, प्रतिदिन वहां दर्शनों के लिए 3 या 4 ही भक्त प्रतिदिन पहुंचते हैं। यदि स्थिति पीड़ा दायक है। हमें वहां प्रतिदिन जाने की आदत डालनी चाहिए। अब तो श्रीराम सेवा समिति द्वारा निर्मित नई धर्मशाला के घास के मैदान पर प्रात: सैर करने वालों की संख्या भी काफी हो चली है। अब हमारे सामने विचार करने के लिए अहम प्रश्र यह है कि श्रीराम सेवा समिति द्वारा संचालित इन प्राचीन मंदिरों का गौरव पुन: कैसे बहाल किया जाए। इस पर आत्म चिंतन और सार्थक प्रयास करने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में सर्वाधिक उत्तराधिकार पुराने नगर वासियों का बनता है। 

चिल्ली वाली धर्मशाला के प्रांगण में विभिन्न संस्थाओं द्वारा श्री श्याम बाबा, श्री बालाजी और मां दुर्गा के विशाल जागरण भव्य स्तर पर करवाए जाते हैं। अग्रवाल महिला संगठन द्वारा यहां तीज महोत्सव मनाया जाता है व दीपावली पर एक क्लब द्वारा ट्रेड फेयर आयोजित किया जाता है और प्रतिवर्ष रामलीला का भी मंचन होता है। तब मंच से उद्ïघोषकों द्वारा बार-बार इन मंदिरों की महिमा का गुणगान दर्शकों-श्रोताओं तक पहुंचाया जाए। उपरोक्त कार्यक्रम में पधारे मुख्य अतिथियों को इन मंदिरों में दर्शन करवाए जाएं। समय-समय पर इन मंदिरों में विभिन्न पर्वो पर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाए और इस संबंध में प्रचार भी किया जाए। यदि 2-4 निष्ठïावान श्रद्घालु इस बीड़े को उठा लें तो कोई कारण ही नहीं कि इन प्राचीन मंदिरों का वैभव पुन: लौट नहीं आएगा? नगर का युवा वर्ग तो इन मंदिरों के विषय में ही नहीं जानता, वे इसकी महिमा को कैसे जान पाएंगे। स्मरण रहे कि प्राचीन शिव मंदिर के पुजारी पं. श्री रामनिवास जी उपाध्याय हैं, उनका भी अपना योगदान है। 

धर्मपरायण, उदारमना, दानवीर और परमभक्त सेठ श्री फतेहचंद जी का फतेहाबाद में जन्म हुआ और यश के कारण वे चारों ओर प्रसिद्घि को प्राप्त करते चले गए। 50 कोस तक फतेहाबाद को जनता फतेहचंद वाला फतेहाबाद के नाम से पुकारने लगे थे। उन्होंने फतेहाबाद में चिल्ली खुदवाई, घाट बनवाए और कई मंदिरों का निर्माण करवाया। इसके अतिरिक्त मां भगवती के स्वप्र आदेश के अनुसार बनभोरी ग्राम (बरवाला से 15 किलोमीटर दूर) जाकर निर्जन वन में, स्वप्र में निर्दिष्ट स्थान की खुदाई करवाकर मां दुर्गा की सैंकड़ों वर्ष प्राचीन मूर्ती प्राप्त कर, वहां मंदिर का निर्माण करवाकर उसमें मूर्ती की प्राण प्रतिष्ठïा करवाई। आज उनकी पूजा भ्रामरी रूप में की जाती है और अब वहां काफी विकास हो गया है। अनेक धर्मशालाएं बन गई हैं। आज एक सिद्घ शक्तिपीठ के रूप में सर्वत्र हरियाणा मेें ख्याति प्राप्त कर चुका है। अब वहां दोनों नवरात्रों में मेले भरते हैं और लाखों श्रद्घालु जुटते हैं। 

सेठ श्री फतेहचंद जी ने फतेहाबाद के निकटवर्ती 2-3 अन्य गांवों में भी मंदिरों का निर्माण करवाया और वहां तालाब भी बनवाए। मंदिर समूहों की रमणीकता और सौंदर्यकरण हेतु लाला जी ने यहां एक सुंदर बगीजे का भी निर्माण करवाया, जो फतेहचंद की बगीची के नाम से प्रसिद्घ हुई। कच्ची चार दीवारी के घिरी यह बगीची रामलीला के वर्तमान मैदान में दायी और चिल्ली के तट पर चौधरियों के बरववे से ऊपर की ओर उपस्थित थी। इसमें अनेक प्रकार के फलदार वृक्ष लगे हुए थे। कस्बा वासी ग्रीष्म ऋतु में सांयकाल इसमें टहलने के लिए जाते थे। पुण्य आत्मा लाला श्री फतेहचंद जी का स्वर्गवास होने के बाद उनका दाह संस्कार यहीं इस बगीची में ही किया गया। परिवारजनों ने उनकी स्मृति में यहां एक और आकर्षक छत्री का निर्माण उनकी स्मृति में करवाया। सन्ï 1959 ई. में उचित संरक्षण के अभाव में बगीची भी उजड़ गई और छत्री भी ध्वस्त हो गई क्योंकि लालाजी के परिवारजन फतेहाबाद छोड़कर अन्यत्र जा बसे थे। लेसूड़

The Ancient Temple Of Sri Krishna in Fatehabad, Krishna Temple, Fatehabad, Haryana

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